वक्त पर जांच और इलाज से बच सकती है एचआईवी पॉजिटिव-टीबी मरीजों की जान

वक्त पर जांच और इलाज से बच सकती है एचआईवी पॉजिटिव-टीबी मरीजों की जान

नरजिस हुसैन

पिछले साल भारत सरकार से जारी हुई एचआईवी रिपोर्ट, 2019 में देश में एचआईवी पॉजिटिव आबादी 23.49 लाख बताई गई थी। 2018 में यही आबादी 23.81 थी। दिल्ली में 2018 में कुल एचआईवी पॉजिटव मामलों में 66 हजार मामले दर्ज हुए थे जो 2019 में बढ़कर 69 हजार तक पहुंच गए हैं। हालांकि, यह बात और है कि देश में हर साल नए दर्ज होने वाले मामलों में 2010-2019 के बीच 37 प्रतिशत की गिरावट भी आई है लेकिन, आज भी देश में एचआईवी और एड्स के विशेष अस्पतालों की गैर-मौजूदगी और इस बीमारी से जुड़ा लोगों का रवैया इसे जड़ से खत्म करने में बहुत बड़ी रुकावट है। ये रवैया या बर्ताव और भी बुरा हो जाता है जब मरीज एचआईवी पॉजिटिव होने के साथ टीबी की बीमारी से भी जूझ रहा हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) भी जागरूकता अभियानों के जरिए सामाजिक व्यवहार को संवेदनशील बनाने पर खासा जोर देता रहा है।

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देश में एचआईवी फैलने की बड़ी वजह है असुरक्षित यौन संबंध और इंजेक्शन के जरिए (आईडीयू) नशा लेने की आदत। एचआईवी पॉजिटिव में ज्यादातर मृत्युदर बढ़ने की वजह टीबी है। एक शरीर में डाइबिटिज और टीबी का कांबिनेशन जितना जानलेवा है उसी तरह एक मानव शरीर में एचआईवी और टीबी की मौजूदगी भी घातक है। इंडिया टीबी रिपोर्ट, 2020 के मुताबिक देश में टीबी के कुल 24.04 लाख मरीज है। और पूरी दुनिया में टीबी से मरने वाली 9 फीसद एचआईवी पॉजिटिव आबादी भारत में रहती है। इस लिहाज से दुनिया में एचआवी-टीबी से मरने वाले लोगों में भारत दुसरे नंबर पर आता है। 2018 (67 प्रतिशत) के मुकाबले 2019 में 81 फीसद तपेदिक के मरीज एचआईवी से जागरूक हुए और इस तरह एचआईवी की जांच में बढ़ोतरी हुई।  हालांकि, टीबी से मरने वाले 25 फीसद मरीज एचआईवी पॉजिटिव थे।

जब एचआईवी और टीबी का मेल होता है तो यह दोगुना जानलेवा हो जाता है हालांकि, सिर्फ एचआईवी पॉजिटिव होने पर यह खतरा इतना नही बढ़ता। आमतौर पर देखा गया है कि एचआईवी पॉजिटिव जो जब तपेदिक का संक्रमण होता है तो शुरू में यह हल्का होता है यानी टीबी के लक्षण हल्के होते है लेकिन, सही वक्त पर जांच न कराने से या ध्यान न देने से यह लक्षण एकदम 20-30 गुना बढ़ जाते है। MacLean E, Saravu K, Pai M. के Diagnosing active tuberculosis in people living with HIV: An ongoing challenge नाम के रिसर्च पेपर में कहा गया है कि एचआईवी-टीबी के कई मरीज ऐसे भी होते है जिनमें टीबी के लक्षण आसानी से नही दिखाई देते। और इन दोनों ही का मेल दरअसल टीबी की पहचान में देरी की बड़ी वजह बनता है। एचआईवी पॉजिटिव की ऐसी बड़ी तादाद है जिनमें टीबी की स्पूटम जांच नेगेटिव आती है और जिसका मतलब है बड़ी संख्या में तपेदिक के मरीजों की पहचान और फिर इलाज शुरू होने में देरी। तो टीबी के मरीज की एचआईवी और एचआईवी पॉजिटिव की टीबी जांच लगातार होते रहनी जरूरी है।

दुनिया में सबसे पुरानी बीमारियों में टीबी भी एक है। अफसोस की बात यह है कि इलाज की नई-नई तकनीक के बावजूद ठीक होने वाली इस बीमारी से आज भी लाखों अलग-अलग देशों में मर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो इसे दस सबसे खतरनाक बीमारियों में एचआईवी के बाद जगह देते हुए इसे महामारी घोषित किया है। तपेदिक ही अकेली ऐसी बीमारी है जो एचआईवी पॉजिटिव के मरने की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। भारत में टीबी के खिलाफ जंग को तीन हिस्सों में बांटकर देखा जा सकता है। टीबी का शुरूआती दौर जब एक्स-रे और कीमोथैरेपी की ईजाद नही हुई थी। दूसरा, आजादी के बाद जब पूरे देश में सरकार ने टीबी नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था और तीसरा, आज जब टीबी के इलाज का डाट्स प्रोग्राम जो दुनिया का सबसे बड़ा प्रोग्राम है और जो जनसंख्या कवरेज के लिहाज से भी दुनिया का सबसे बड़ा प्रोग्राम माना जाता है। यही नही इस वक्त विदेशों से भी इसके नियंत्रण के लिए सरकार को आर्थिक मदद मिल रही है।

देश में जुलाई, 2020 तक सरकारी आंकड़ों के हिसाब से एचआईवी पॉजिटिव के इलाज के 570 एंटी-रेट्रोवायरल केन्द्र (एआरटी) है और करीब 1264 लिंक एआरटी सेंटर है। 3,02,90,936 आबादी वाले दिल्ली में 11 अस्पतालों में ही एचआईवी इलाज के एआरटी सेंटर हैं। इतनी बड़ी आबादी में कोई एक अस्पताल भी खासकर एचआईवी पॉजिटिव के लिए नहीं है। बहरहाल, तपेदिक के सभी मरीजों को एचआईवी जांच की सलाह दी जाती है और अगर कोई टीबी मरीज एचआईवी पॉजिटिव पाया जाता है तो उसे फौरन एआरटी सेंटर भेजा जाता है जहां से उसका आगे का इलाज चलता है लेकिन, गर्वमेंट स्टैंले मेडिकल कॉलेज, चेन्नई में पलमोनेरी विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर विनोद कुमार का कहना है, “एचआईवी-टीबी मरीजों को एआरटी उपचार पर लाना ही काफी नहीं है। हालांकि, इसकी भूमिका बेहद अहम है लेकिन, यह निर्भर करता है रोगी के सीडी-4 काउंट पर क्योंकि यही बताता है कि उसकी इम्युनिटी कितनी है। एचआईवी पॉजिटिव की इम्युनिटी जितनी ज्यादा होगी उसके टीबी के रोगी बनने की उम्मीद उतनी ही कम होगी।“

डाइबिटीज और एचआईवी दोनों ही तरह की आबादी को टीबी से बचने के लिए जरूरी है कि अपने खाने पर ध्यान दें। इस बारे में डॉक्टर कुमार का कहना है,“ एचआईवी पॉजिटिव के लिए बेहद जरूरी है कि वे पौष्टिक खान-पान की आदते अपनाएं। हालांकि, इलाज केन्द्रों से उन्हें सप्लीमेंट भी मिलते हैं ताकि जो पोषण खाने से न मिल पाए उन्हें इसके जरिए पूरा किया जा सके।“ कोलकाता में कई साल एचआईवी पॉजिटिव का इलाज कर चुके डॉक्टर कुमार ने यह बात भी साझा की कि एचआईवी पॉजिटिव के ज्यादातर लोग कम और मध्यम आय के परिवारों से आते हैं जो अक्सर कुपोषण के शिकार भी होते हैं इसलिए उनकी इम्युनिटी कम होती है और उनमें टीबी रोग जल्दी होने की संभावना बनी रहती है। यही नहीं बहुत बार एचआईवी पिजिटव में टीबी इन्हीं कारणों से रिलैप्स भी हो जाता है जिससे इसका इलाज और मुश्किल हो जाता है। 2018 में Developing a model to predict unfavourable treatment outcomes in patients with tuberculosis and human immunodeficiency virus co-infection in Delhi, India नाम से छपे एक रिसर्च पेपर में कहा गया है कि देश में कुल टीबी मरीजों की 10 फीसद आबादी ऐसी है जिनको लागातर फॉलो-अप न कर पाने की वजह से टीबी का इलाज नही मिल पाता। वहीं इनमें कई ऐसे मरीज भी हैं जो प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं जो राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के दायरे के बाहर होते है। टीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में ऐसे छूट जाने वाले टीबी रोगी 10 लाख जो 2019 में घटकर 5.4 लाख हो गए हैं।

डॉक्टर कुमार बताते हैं कि,“कुछ वक्त पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एचआईवी-टीबी मरीजों की आसोनाइज्ड प्रिवेंनटिव थैरेपी (आईपीटी) की शुरूआत की थी जिसे भारत में 2 साल पहले ही अपनाया गया। इस थैरेपी के जरिए ज्यादा तेजी से एचआईवी पॉजिटिव में टीबी को पकड़ा जा सकता है। 2019 में तो यह इलाज काफी अच्छा चला लेकिन, 2020 में कोरोना महामारी की वजह से इसमें कुछ रूकावटें आई जो अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है और इन लोगों का इलाज दोबारा नार्मल हो रहा है।“ परेशानी सिर्फ यही नही है बल्कि एचआईवी पॉजिटिव-टीबी मामलों में मरीज को ड्रग रेस्सिटेंस (एमडीआर) टीबी या रिफ्मप्सिन समेत कई अन्य दवाइयों का असर खत्म हो जाता है जो एक मुश्किल बात है।   

पिछले कुल सालों में कई अन्य देशों के मुकाबले भारत ने जिस तरह और जिस तेजी से टीबी को काबू किया है वह सच में काबिलेतारीफ बात है। अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम के जरिए सरकार ने मरीजों की लगातार जांच, मुफ्त दवाइयां, काउंसिलिंग सहित कई सुविधाएं दी हैं। लेकिन, खासकर एचआईवी पॉजिटिव लोगों को परिवार और समाज के तिरस्कार का सामना करना पड़ता है इस डर की वजह से कई लोग सामने नहीं आते और संक्रमण का इलाज नही ले पाते। यही नहीं सफलता के इतने पास आने के लिए अभी सरकार को अलग-अलग राज्यों में प्रवास के जरिए फैल रहे संक्रमण पर ध्यान देना होगा और टीबी और एचआईवी से संबंधित आकंड़ों को सही तरीके से इकट्ठा करना और उसका अध्ययन बीमारी की जड़ तक पहुंचने में मदद देगा। लेकिन, मरीजों को भी एक जिम्मेदार नागरिक की तरह इन कार्यक्रमों से फायदा उठाते हुए  सरकार की मदद को आगे आना होगा।

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