योग विज्ञान : मैं कहता ऑखन देखी

योग विज्ञान : मैं कहता ऑखन देखी

परंपरागत योग के विभिन्न पक्षों पर जितना शोध मौजूदा समय में हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह योग विज्ञान के लिए स्वर्णिम काल है। पश्चिमी देशों में शोध का फलक भारत की तुलना में कई गुणा बड़ा है। दो कारणो से। पहला तो यह कि उनके पास बुनियादी ढ़ांचा हमसे कहीं ज्यादा हैं। दूसरा यह कि परंपरागत योग के रहस्य हमारे लिए सामान्य बात है। पर उनके लिए पहेली है।  मानव जीवन कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां उनकी पहुंच नहीं बन पाई है। वे जीवन की कई घटनाओं के कारण और परिणाम के बीच संबंध जोड़ पाने में असमर्थ हैं। दूसरी तरफ हमें अपनी समृद्ध परंपरा को संरक्षित करके उसी रूप में जनता तक पहुंचाने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है।

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पश्चिम के वैज्ञानिको के लिए आज भी यह रहस्य पूरी तरह सुलझा नहीं है कि संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वान रहे आचार्य देवसेन को जिस पुस्तक को पढ़ने में सात दिन लग गए थे, उसी पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने महज आधा घंटा में किस तरह कंठस्थ कर लिया था। आचार्य देवसेन ने अपने संस्मरण में लिखा है – “मैंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि आपने आधा घंटा में पूरा किताब कैसे याद कर लिया? तो उन्होंने उत्तर दिया,  'जब तुम शरीर द्वारा अध्ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते, तो तुम किताब से सीधे—सीधे जुड़ते हो तुम्हारी चेतना सीधे—सीधे स्पर्श करती है। तुम्हारे और किताबें के बीच कोई बाधा नहीं होता। तब आधा घंटा भी पर्याप्त होता है। तुम उसका अभिप्राय, उसका सार आत्मसात कर लेते हो।’

ये वैज्ञानिक पांच दशक पहले तक तो भारतीय योग दर्शन की इसी बात से हैरान होते थे कि योग के माध्यम से जीवन को परिवर्तित किया जा सकता है, आरोग्य और मानसिक शांति को प्राप्त किया जा सकता है। पर जब उन्होंने हठयोग के अनेक अभ्यासों पर वैज्ञानिक अध्ययन किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। फिर तो राजयोग के कुछ अभ्यासों पर भी शोध किया। उनके नतीजे भी भारतीय योग दर्शन के अनुरूप ही हुए। पर अनेक मामलों में उलझन बरकरार है। मसलन, उनके लिए परकाया प्रवेश विद्या को वैज्ञानिक मानना कठिन हो रहा है, जबकि भारतीय दर्शन के मुताबिक यह भी एक योग विद्या है। इस शताब्दी में यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रणेता और बिहार योग विद्यलाय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती परकाया प्रवेश विद्या के जानकार थे। बिहार योग विद्यालय के पुस्तकों में उल्लेख है कि स्वामी जी ने इस विद्या का अपने ऊपर ही सफलतापूर्वक प्रयोग किया था। ‘नाथ सम्प्रदाय’ के आदि गुरु मुनिराज ‘मछन्दरनाथ’ के विषय में भी कहा जाता है कि उन्हें परकाया प्रवेश की सिद्धि प्राप्त थी और वे सूक्ष्म शरीर से अपनी इच्छानुसार गमनागमन विभिन्न शरीरों में करते थे। “अखंड ज्योति” में श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी इस बात का उल्लेख किया है।

यह हाल तब है जब प्राचीन काल में उनके यहां भी भारत की योग विद्या की जड़ें गहरी हो चुकी थीं। पौराणिक ग्रंथों की बातें छोड़ भी दें तो दुनिया भर में विभिन्न सभ्यताओं के मिले अवशेषों से पता चलता है कि योग एक प्राचीन और विश्वव्यापी संस्कृति रही है। सिंधु - सरस्‍वती घाटी सभ्‍यता के अवशेषों से पौराणिक ग्रंथों की योग संबंधी बातों पर मुहर लग चुकी है। दक्षिण अमेरिका के अनेक स्थानों पर खुदाई हुई तो वहां की प्राचीन सभ्यता में भी योग की उपस्थिति का पता चला। पारंपरिक योग आसनों जैसे, शीर्षासन, मयूरासन, सिंहासन, शशांकासन, वक्रासन, वृश्चिकासन आदि क्रियाएं दर्शाने वाली मूर्त्तियां मिलीं। अनुमान लगाया गया कि है कि ये मूर्त्तियां सात हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी हैं। भारतीय योगियों ने दुनिया के अनेक देशों में योग की प्राचीन संस्कृति का अध्ययन किया तो पाया कि भारत की तरह उन देशों में भी योग को जीवन-पद्धति के रूप में देखा जाता था।

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आखिर ऐसे क्या हुआ कि योग कालांतर में भारत में संन्यासियों और योगियों तक ही सिमट कर रह गया? शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक और वेदान्त दर्शन के अनुयायी स्वामी रामतीर्थ (1873-1906) एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। स्वामी जी ने जापान के राजमहल में छोटे-से चिनार का पेड़ गमले में देखा तो हैरानी रह गए। इसलिए कि भारत में चिनार का पेड़ पचास फीट से भी ऊंचा होता है। उन्हें यह जानकर और भी हैरानी कि वह पेड़ ढ़ाई सौ साल पुराना था। उन्होंने पूछा, “पेड़ जिंदा है क्या?” उन्हें बताया गया कि पेड़ जिंदा तो है, पर बढ़ नहीं सकता। इसलिए कि इसके नीचे की तीन जड़ें काटी जा चुकी हैं। यह सुनकर स्वामी रामतीर्थ ने कहा – लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। उसकी भी तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए वह जिंदा तो है। पर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहा है।

सवाल है कि किसने जड़ें काटी? इस पर फिर कभी। पर हमें भारतीय संतों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी बदौलत समृद्ध योग की परंपरा बची रह गई। वरना हमारी भी स्थिति वैसी ही होती जैसी पश्चिम की है, जहां परंपरागत योग के नाम पर अवशेष ही बचे हैं और आधुनिक योग के नाम पर जो कुछ है, वह भारत से आयातित है। इस मामले में कबीर दास यह उक्ति बेहद प्रासंगिक है – “मैं कहता हौं ऑखन देखी, तू कहता कागद की लेखी।“ पश्मिमी जगत की कागज की लेखी राजनीतिक कारणों से या प्राकृतिक कारणों से बर्बाद हो गई। पर भारत की ऑखन देखी योग परंपरा बची रह गई। योगियों का अनुभव उनके शिष्यों के मार्फत हस्तांतरित होता गया।

पर योग के मनीषियों के लिए यह चिंता का सबब बना हुआ है कि योग के अनेक कारोबारी परंपरागत योग के रूप में मौजूद अमूल्य निधि की जगह कुछ भी परोस दे रहे हैं। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अनेक मौकों पर कहते रहे है कि की लोग योग की व्याख्या गलत ढ़ंग से कर दे रहे हैं। महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम द्वारा प्रतिपादित योग की विधियों को कई बार महर्षि पतंजलि का बता दिया जाता है। इतना ही नहीं, योग के स्वयंभू अगुआ कई प्रकार के व्यायाम को राज योग और राज योग को हठ योग बताने में भी पीछे नहीं रहते। महर्षि पतंजलि के नाम पर जो आसन कराया जाता है, उसे राज योग कह दिया जाता है, जबकि वह हठ योग होता है, जो महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित नहीं है, बल्कि महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम द्वारा प्रतिपादित है। हठयोग तो पट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध, इन पांच को मिलाकर होता है। हठ योग में सिद्ध होने के बाद राज योग की बारी आती है। राज योग में हठयोग की प्रक्रियाएं पूरी तरह बदल जाती हैं।

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यह सुखद है कि सरकार से लेकर परंपरागत योग के संस्थानों तक की ओर से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठियां आयोजित करके चीजें सुधारने की दिशा में पहल की जा रही है। इसी महीने 15-16 फरवरी को इंडिक एकेडमी इंटर गुरूकुल यूनिवर्सिटी सेंटर ने रमैया इस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के सहयोग से बेंगलुरू में योग-दर्शन और उसके प्रयोग पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। उसमें स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान और भारतीय योग संघ नॉलेज पार्टर के रूप में थे। महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग अनुसंधान संस्थान की ओर से 24-25 फरवरी को योग प्रशिक्षकों के सशक्तिकरण के लिए संगोष्ठी आयोजित की जा रही है। केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने योग शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए कई स्तरों पर काम शुरू कर दिया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

 

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